बिहार: मतदाताओं के दृष्टिकोण में फंसा नीतीश सत्ता का पेंच
बिहार: मतदाताओं के दृष्टिकोण में फंसा नीतीश सत्ता का पेंच
प्रोफे. डां. तेजसिंह किराड़
(वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति विश्लेषक)
कोरोना काल का बिहार और बारिश के बाढ़ की त्रासदी का गंभीर रूप से चिंतन और मूल्यांकन करके बिहार का भावी भविष्य आखिर मतदाताओं ने वोटिंग मशीनों में बंद कर दिया हैं। बिहार में सत्ता परिवर्तन की नवीन परिभाषाओं के कई मायनें ऐक्जिट पोल के माध्यम से देश की राजनीति में दस्तक दे रहें हैं। नीतीश के जंगल राज वाले कथन पर भाजपा और सहयोगी पार्टियों में भी गहन मंथन आरंभ हो गया हैं। यही नहीं नीतीश की छवि को देखते हुए भीजपा ने भी लोजपा को कई मामलों में पर्दे के पीछे से कई अनपेक्षित संकेत पहले ही दे दिए थे जो चिराग की जुबान से तीर की तरह निकलते रहे हैं।
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मेरे! बिहारवासियों! यदि आपको लगता हैं कि आपको बिहार में जंगलराज में रहना पसंद हैं तो आप किसी भी पार्टी को वोट कर सकते हैं। नीतीश के यही बड़ बोलेपन के बोलवचन उनके गठबंधन वाली एनडीए सरकार पर बहुत भारी पड़ते दिखाई दे रहे हैं। नीतीश ने मतदाताओं का इस तरह अपमान किया है या उन्हें समझाया हैं यह मतदाताओं को सही रूप में बिल्कुल समझ में नहीं आने से नीतीश की एनडीए, ऐक्जिट पोल के संभावित आंकलनों में सबसे फिसड्डी साबीत हो रही हैं। लालू के युवा लाल तेजप्रताप और तेजस्वी यादव ने नीतीश के बोलवचनों और पारिवारिक आरोपों को कभी गंभीरता से ना लेकर केवल नीतीश काका कहते हुए मतदाताओं में ससम्मान से विवाद को टाल रहे हैं। यह मनोवैज्ञानिक कदम उठाने के पीछे एक परिपक्व राजनीतिक विश्लेषण को ही मूल्यांकित किया जाना चाहिए। क्योंकि बिहार की जनता ने दो खतरनाक त्रासदी झेंली हैं एक कोरोना काल की मानवीयता पर गहरा आघात और दूसरा बारिश की भयावह बाढ़ के कारण अस्त -व्यस्त जनजीवन के अमानवीय दृश्यों का चिंतन और निर्णय। ऐसे में बिहार को ना तो नीतीश कुमार के मंत्री कभी बेहत्तर तरीके से समझ सकें और ना ही भाजपा के आलाकमान दिग्गज नेता। लेखक ने चुनाव के पहले ही एक आर्टिकल में स्पष्ट लिखा था कि भाजपा ने नीतीश की जगह यदि सुशील मोदी को सीएम प्रोजेक्ट किया होता तो बिहार एनडीए के हाथों से नहीं फिसलता। आज समीकरण तेजी से बदल चुकें हैं। लोजपा का नीतीश के विरोध में अनर्गल आरोप -प्रत्यारोपों ने नीतीश कुमार की सीएम वाली छवि को बहुत आहत किया हैं। यहीं कारण हैं कि भाजपा ने भी चिराग को ना तो कोई ठोस नसीहत दी और ना ही क्षेत्रीय मुद्दों को जनता के सामने लाने की कोई ठोस पहल ही की गई। बिहार में नीतीश और भाजपा के लिए सुशांत सिंह का फेक्टर भी कुछ काम नहीं आया और ना ही आरजेडी के संयुक्त गठबंधन को पूरी तरह से राजनीति चुनावी रंग में घेरने में कामयाब हो सकें। एक्जिट पोल में नीतीश की हार बिहार की हार नहीं वरन एक ऐसे राजनीति योध्दा की हार मानी जा रही हैं जो पन्द्रह वर्षों से सत्ता पर काबिज रहकर भी बिहार के मतदाताओं के मन,समस्याओं और विकास के मायनों को समझनें में कमजोर साबीत हुए हैं। यद्यपि देश में लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रियाओं के संवैधानिक निर्णयों को ही मान्य किया जाता हैं ना कि किसी एजेन्सी या एक्जिट पोल के निर्णय से सत्ता काबिज होती हैं। नीतीश के लिए सबसे दुखद पहलू यह भी हैं कि आज वे बिहार में एक ठोस विकल्प को कभी भी अपना सच्चा सहयोगी नहीं बना सके हैं। एनडीए में रहकर भी एनडीए को मनपूर्वक कभी उनका सहयोग नहीं रहा हैं यही कारण हैं कि वर्तमान के बिहार चुनाव में चिराग की लोजपा को भी जमीनी स्तर पर लोगों को एक भविष्य नजर आने लगा हैं परन्तु आरजेडी की जमीं हुई राजनैतिक जड़ें लालू,राबड़ी के सत्ताई काल से बहुत गहरें रूप में फैली हुई हैं। ऐसे में चिराग को अकेले बिहार पर सत्तासीन होने लायक बनने के लिए बिना भाजपा के सहारें दूर दूर तक कोई भी बड़ा बैनर नजर नहीं आ रहा हैं। भाजपा भी चिराग की लोजपा को अनदेखी करके अकेले सत्तासीन नहीं हो सकती हैं। स्पष्ट हैं कि बिहार में युवाओं की जवाबदेही को मतदाताओं ने विकासशील बिहार के रुप में देखना आरंभ कर दिया हैं। तेजस्वी यादव एक मंजे हुए और पिता की गुणशैली से युक्त मतदाताओं के मन को बेहत्तर तरीके से पढ़ने वाले एक समझदार युवा नेता के रुप में उभर कर सामने आएं हैं। मोदीजी ने चाहे नीतीश के साथ के एनडीए गठबंधन को फैलाने में बड़ी बड़ी सभाएं आयोजित की हैं परन्तु भाजपा के आला चाणक्यों ने पहले ही मानस बना लिया था कि नीतीश के रहते बिहार में कमल खिलना अब कठिन हैं। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर जो विविध पार्टियों के जमीनी सर्वे पहले प्राप्त हुए थे उनमें बिहार में नीतीश कुमार को लेकर बहुत ही आक्रोश बिहारवासियों ने दर्ज करवाया था किन्तु फिर भाजपा के शीर्ष पदाधिकारियों ने दबे गले से जेडीयू को सीएम पद देकर प्रोजेक्ट करना एक मजबूरी का सौदा किया था। देश की जनता ने मोदीजी के राष्ट्रीय मुद्दों को गंभीरता से समझा महत्व भी दिया। परन्तु नीतीश ने तमाम सभाओं में केवल और केवल लालू परिवार पर व्यक्तिगत आरोप लगाकर क्षेत्रीय मुद्दों की सरासर उपेक्षा कर दी। मतदाताओं को पारिवारिक मुद्दों से नहीं जमीनी समस्याओं से समाधान चाहिए था यह बात भाजपा के आलाकमान ने भी मूल्यांकित की थी। परन्तु भाजपा चिराग को प्रोत्साहित करके पहले ही जेडीयू को बिखरने की रणनीति बना चुकी थी। बिहार में भाजपा ने सुशील मोदी को केवल बिहार तक सीमित रखकर बिहारी चेहरा बनाकर ही रखने सुशील कुमार मोदी ने कभी भी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति को समझने की कोशिश नहीं की। यही वजह भी रही हैं कि राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के रुप में सुशील मोदी को कभी नहीं देखा गया हैं। इसके चलते सुशील मोदी ना तो भाजपा की राष्ट्रीय संगठन में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निर्वाह कर सकें हैं और ना ही उनके प्रति राष्ट्रीय पदाधिकारियों का बिहारी चुनाव में कोई हुजूम जमीनी स्तर पर नजर नहीं आया। तेजस्वी यादव ने बिना लालू यादव की उपस्थिति के ही बिहार का चुनावी मैदानी किला बहुत ही श्रेष्ठ कुशल रणनीति बनाकर आखिर फतेह करने का सौभाग्य तक पहुंच चुकें हैं। यह भाजपा के किसी भी आलाकमान के गले नहीं उतर पा रही हैं कि बिहार के मतदाताओं ने एकाएक नीतीश कुमार को चारों खानें कैसे चित्त कर दिया। मोदी लहर भी एक्जिट पोल के नतिजों के आगे फिकी पड़ती नजर आ रही हैं। राजनीति के पंडितों का मानना हैं कि बिहार में यदि आरजेडी गठबंधन की सत्ता काबिज होती हैं तो आगामी पश्चिम बंगाल के चुनाव पर भाजपा को गंभीर रूप से रिसर्च करके अध्ययन करना होगा। यही नहीं भाजपा के चुनावी स्टार प्रचारकों की जमीनी छवि का भी मूल्यांकन करना होगा कि केवल बोलवचनों से चुनावी मैदान नहीं जीते जाते हैं। ये वे प्रचारक होते हैं जो कभी बिहार में जनता का दुख दर्द समझनें कभी उनके बीच में नहीं देखें गये। ऐसे में इनके प्रचार को मतदाताओं ने कितना महत्व दिया इस पर एक अलग से रिसर्च करने की कयावद पार्टी को करना होगी।
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