उत्तम आकिंचन पर जैन मुनि गणाचार्य 108 विराग सागर महाराज क्या बोले
उत्तम आकिंचन पर जैन मुनि गणाचार्य 108 विराग सागर महाराज क्या बोले
भिण्ड/कोडरमा 31 अगस्त ।उत्तम आकिंचन न किंचन इति आकिंचन मेरा कुछ नहीं हैं यहभी महँ धर्म है जग के विनशवर धन दौलत आदि वैभवो मे छाँटकर देखते जाओ तो आपके गांठ खली नजर आयेंगे न कुछ लेकर आया था न कुछ लेकर जायेगा धन दौलत और माल खजाना पड़ी यही रह जायेगा। सिकंदर जैसा महान सम्राट विशव विजय हेतु निकला जब अंत मे भारत आया तब दिगम्बर मुनि कल्याण ने उसकी आँखें खोल दी वह उन्हें गुरु बनाता है और जीवन का अंत उनके चरणों मे करता है लोग कहते है वह किस्मत साथ लाता है हम व्यक्तित्व निर्माण के जिम्मेदार स्वय है पर आश्चर्य है माता पिता रिश्तेदारो गुरु आदि पर देते है उपदान प्रत्येक का स्वतंत्र है चाहे तो तू तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है चाहे तो दर दर का भिखारी बन सकता है पर याद रखना अंत भला तो सब भला अतः हमारा जैन धर्म जीवन की नही मरण की कला सिखाता है क्योंकि आहार भय मैथुन परिग्रह संज्ञा से पसु भी जीता है पर माना होकर इसी में फसा रहा तो तेरा जीवन व्यर्थ है तीर्थंकर भी राज्य पथ भी छोड़ देते है क्योंकि आत्मा की शोध हेतु निर्जन बन जाइये अर्थात भीड़ में नही रहे या भीड़ में भी आत्मा की शरण ले सके तो उत्तम आकिंचन सार्थक है।
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